Sunday, April 10, 2011

गज़ल

सुना जो ग़ालिब को, फिर कुछ और सुनाई ना दिया,

जहाँ-ए-आलम में सिवा ग़ज़ल कुछ दिखाई ना दिया |


ज़माने ने दिया तालीम, कूबत-ए-सुख़न बेपनाह,

कर सके न फिर भी शायरी, के तनहाई ना दिया |


लोग कहते हैं तुझ को नेक-जिगर जाने क्यूँ कर,

इक नज़र में ही ले ली जान, औ सफाई ना दिया |


खुले थे कान मगर दिल पे था लगा ताला,

और कहते हो "मुझको कुछ भी सुनाई ना दिया" ?


जिये खुद-ही के लिए, तो गुमनाम ही मौत आएगी,

फिर न कहना किसी ने अश्क-ए-विदाई ना दिया |


यूँ तो अरसे से था जेहन में लिये बारूद "कर्मू",

पर कमबख्त किसी ने अब तलक सलाई ना दिया |




शब्दार्थ:

तालीम = शिक्षा

कूबत-ए-सुख़न = कविता करने की क्षमता

अश्क = आंसू

सलाई = माचिस