सुना जो ग़ालिब को, फिर कुछ और सुनाई ना दिया,
जहाँ-ए-आलम में सिवा ग़ज़ल कुछ दिखाई ना दिया |
ज़माने ने दिया तालीम, कूबत-ए-सुख़न बेपनाह,
कर सके न फिर भी शायरी, के तनहाई ना दिया |
लोग कहते हैं तुझ को नेक-जिगर जाने क्यूँ कर,
इक नज़र में ही ले ली जान, औ सफाई ना दिया |
खुले थे कान मगर दिल पे था लगा ताला,
और कहते हो "मुझको कुछ भी सुनाई ना दिया" ?
जिये खुद-ही के लिए, तो गुमनाम ही मौत आएगी,
फिर न कहना किसी ने अश्क-ए-विदाई ना दिया |
यूँ तो अरसे से था जेहन में लिये बारूद "कर्मू",
पर कमबख्त किसी ने अब तलक सलाई ना दिया |
शब्दार्थ:
तालीम = शिक्षा
कूबत-ए-सुख़न = कविता करने की क्षमता
अश्क = आंसू
सलाई = माचिस