Thursday, November 21, 2013

गज़ल

मुझको भी अब इबादत नई सिखा दे कोई,
नए ख़ुदा का आए मुझको पता दे कोई

मस्जिदों में अब केवल बुत ही नज़र आते हैं
करे एहसान अगर को मैखाना दिखा दे कोई

मयकशी का तो होता है फिर भी इलाज़ मुमकिन
"मैं" का नशा है सबको, कैसे सज़ा दे कोई

गुनाहगार थे सभी जो, मसीहा बने पड़े हैं
सूली चढ़े वो ईसा, ये रवाज़ हटा दे कोई

हुई ख़ता के "शम्स" अबतलक जो चुप है,
कह भी दिया तो सुनेगा कौन, बता दे कोई

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