बचपन के दिन अच्छे थे
अक्सर लुका-छिपी का खेल खेलते,
चाहे कहीं भी छुप जाओ,
दोस्त हमेशा ढूँढ निकालते थे,
आज छिपने के ठिकाने बदल गए हैं -
कभी किताबें, कभी फाइल,
फेसबुक, ट्विटर,
कुछ नहीं, तो खुद के ही मुखौटे के पीछे!
और कोई दोस्त ढूंढ नहीं पाता...
सब, खुद भी तो छुपे हुए हैं!
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