Thursday, July 12, 2012

दीवारें
















कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं
जो उनमे दरार डालता है
जो दस्यु वाल्मीकि से रामायण लिखवाकर,
उसे ब्रह्मण कर जाता है
जो चंड-अशोक को धम्म सिखाकर,
प्रियदर्शी बनाता है
जो जलालुद्दीन मोहम्मद को दीन-ए-इलाही बताकर,
शहंशाह अकबर कहलवाता है

कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं
वरना हम जो ज़मीन पर लकीरें खींच कर दीवार बनाते हैं,
क्यों ये बेवक़ूफ़ परिंदे हजारों मील का फासला तय कर,
फिर भी चले आते हैं?
ये बारिश की बूँदें भी तो यह नहीं पूछती,
कि, कहीं वो बाजु वाले घर के गीले कपड़ों से तो नहीं पनपी?
वो जो रजनीगंधा का पेड़ है कई दीवारों के पार,
क्यों उसकी खुशबू फिर भी नहीं रूकती?

कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं

वैसे देखा जाये तो दीवारें चाहिए भी क्यों?
ये तो कुछ छिपाकर, बांधकर रखने के लिए होती है ना
विचारों का प्रसार बंधनों में तो नहीं हो सकता
पर विडम्बना ये है कि, हर विचारधारा एक नयी दीवार खड़ी करती है
लेकिन बड़ी-बड़ी दीवारें हैं तो छोटी-छोटी खिड़कियाँ भी हैं,
उनकी भव्यता को धता बताने के लिए
अनंत दीवारों के बीच, बस एक खुला झरोखा,
काफी है यह एहसास कराने को, कि,
कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं!



(Theme, and specially the starting line, inspired by Robert Frost's "Mending Wall")

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