Friday, July 27, 2012

जियो, उठो, बढ़ो, जीतो!

















अबकी जो गए हैं, तो खाली हाथ नहीं आएंगे!
खेल  नहीं रहेंगे खेल की बात,
होगा जोश, जूनून और जज़्बात
छोड़ेंगे नहीं रत्ती भर भी कसर,
Citius-Altius-Fortius को करेंगे आत्मसात

और मज़बूत, और तेज़, और ऊँचा जाएंगे
अबकी जो गए हैं, तो खाली हाथ नहीं आएंगे!

खून बस आँखों में हो, ऐसे लड़ना सिखाता है,
हार से नहीं, हार मानने से डरना सिखाता है
बस एक इंच, एक गोल, एक प्वाइंट और,
खेल, सतत लक्ष्य पे आगे बढ़ना सिखाता है

हर दिल में स्पीरिट स्पोर्ट्स का, चेहरे पे मुस्कान जगायेंगे,
अबकी जो गए हैं, तो खाली हाथ नहीं आएंगे!

अपना परचम लहराने को तैयार हम भी हैं,
पहले खेलते थे अकेले तुम, इस बार हम भी हैं,
ये देख चीयर करने को है पूरा देश उठ खड़ा,
सोने के, चांदी-कांसे के तयबदार हम भी हैं

बयासी की नहीं, सवा सौ करोड़ की टीम बनायेंगे,
अबकी जो गए हैं, तो खाली हाथ नहीं आएंगे!

Sunday, July 22, 2012

बुरा जो देखन मैं चला...

गाँधी टोपी पहने नेता, तुम दोषी हो
जागरूकता की शोबाजी करते अभिनेता, तुम दोषी हो
चपरासी, बाबु, या कलेक्टर,
फौज का सिपाही, वर्दीवाला अफसर
नोट छापने वाले इंडसट्रीयलिस्ट, तुम
NGO वालों, दिखावटी फिलैंथ्रोफिस्ट, तुम
मिडिया वालों - न्यूज़ चैनल हो या पत्रकार, तुम भी
जो जंतर-मंतर से कह रहे बंद करो भ्रष्टाचार, तुम भी
तुमारा दोष है बिहारी, मद्रासी या चिंकी होना
और तुम्हारा, दिवाली में हँसना या मुहर्रम में रोना

सब के सब गलत हैं, बस जो एक सही है
वो मैं हूँ, मुझमे कोई ऐब नहीं है
और हो भी कैसे,
मैं घर में आईना जो नहीं रखता!

Saturday, July 21, 2012

एक रोज़ा और भी

रोजा ना रखना तुम्हारी मर्ज़ी है,
और रोज़ाना रखना, हमारी मजबूरी
ये बात और है, के अक्सर सेहरी रह जाती है,
या इफ्तार नहीं होता |
जबरन की गयी इबादत में बरक्कत नहीं होती शायद,
तभी तो, महीने भर में तुम्हारी ईद हो जाती है,
मगर हमें चाँद नहीं दिखता
गलती उसकी भी नहीं है
दोस्त है न अपना, जानता है,
"दिख जाऊंगा तो कौन सा सेवैयाँ खा पायेगा"
इसलिए चिढ़ाने नहीं आता!



Thursday, July 12, 2012

दीवारें
















कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं
जो उनमे दरार डालता है
जो दस्यु वाल्मीकि से रामायण लिखवाकर,
उसे ब्रह्मण कर जाता है
जो चंड-अशोक को धम्म सिखाकर,
प्रियदर्शी बनाता है
जो जलालुद्दीन मोहम्मद को दीन-ए-इलाही बताकर,
शहंशाह अकबर कहलवाता है

कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं
वरना हम जो ज़मीन पर लकीरें खींच कर दीवार बनाते हैं,
क्यों ये बेवक़ूफ़ परिंदे हजारों मील का फासला तय कर,
फिर भी चले आते हैं?
ये बारिश की बूँदें भी तो यह नहीं पूछती,
कि, कहीं वो बाजु वाले घर के गीले कपड़ों से तो नहीं पनपी?
वो जो रजनीगंधा का पेड़ है कई दीवारों के पार,
क्यों उसकी खुशबू फिर भी नहीं रूकती?

कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं

वैसे देखा जाये तो दीवारें चाहिए भी क्यों?
ये तो कुछ छिपाकर, बांधकर रखने के लिए होती है ना
विचारों का प्रसार बंधनों में तो नहीं हो सकता
पर विडम्बना ये है कि, हर विचारधारा एक नयी दीवार खड़ी करती है
लेकिन बड़ी-बड़ी दीवारें हैं तो छोटी-छोटी खिड़कियाँ भी हैं,
उनकी भव्यता को धता बताने के लिए
अनंत दीवारों के बीच, बस एक खुला झरोखा,
काफी है यह एहसास कराने को, कि,
कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं!



(Theme, and specially the starting line, inspired by Robert Frost's "Mending Wall")