Wednesday, December 14, 2011

दिल्ली


शोर ही शोर है पर आवाज़ भी है,
मुल्क जो समझे वो अल्फाज़ भी है

बस सियासती पचड़ों का ठिकाना नहीं,
जम्हूरियत का एक परवाज़ भी है

सिर्फ एक ही कौम, इंसानियत का है
गुरबानी है, आरती है, और नमाज़ भी है

हज़रत साहब हैं, ग़ालिब भी यहीं के हैं
सूफियाना, कुछ शायराना अंदाज़ भी है

नफरत भी दिल से औ मुहब्बत भी,
दिल का हाकिम है, दिल नवाज़ भी है

तुम दिल्ली से कर लो लाख गिला "कर्मू"
दिलरुबा है तेरी, तुझे इस पर नाज़ भी है

Monday, November 28, 2011

गज़ल

हाँ मुमकिन है बेशक, उसका ख़ुदा होना,
इन्सां को नहीं हासिल मगर इन्सां होना |

पढ़ रक्खा है सबने ही सबक नेकी का लेकिन,
है शराफत का हशर सहूलियत पे फना होना |

कुफ्र को ही देखो ईमान बना लिया हमने,
रास आता न था हमको भी बे-ईमां होना |

के भड़कते नहीं शोले दिलों में शायरी से अब,
बढ़ रहा है यों हर शेर पे वाह-वाह होना |

उठेंगी उँगलियाँ ही बस जो आवाज़ दोगे,
मुश्किल है हाथ बढ़ाने का हौसला होना |

मर जाओगे तो कहेंगे लोग - भला था "कर्मू"
ले तेरे होने से अच्छा है तेरा ना होना |

Thursday, September 22, 2011

Romance meets comedy!

बस इक झलक तेरी, और हो गया चारो खाने चित,
नज़र के फिसलने को केले का छिलका नहीं लगता |
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लोग कहते हैं के निगाहें नशीली हैं तेरी,
मुझे इनमे मय तो नहीं दिखता, मैं दिखता हूँ |
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Remnants of thoughts, during Ramadan

अब तो रमज़ान में भी बस यही कारोबार होता है,
रोज़ा होता है अवाम का, सियासी इफ्तार होता है |
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इबादत में औ मोहब्बत में बस फर्क इतना है,
वो करते हैं सिर्फ रोज़े पर, इसे रोज़ करते हैं |
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सवाल रोज़ा रखने का नहीं, तोड़ने का है, या मौला
दो टुकड़ा खज़ूर हो मयस्सर, तो इफ्तार भी हो जाए |
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"तेरे अब्बू की तनख्वाह अभी आई नहीं है"
माँ ने कहा, हाथ में 5 का सिक्का बिठाते हुए
ईदी में तो "घोटाला" न कर अम्मी,
मैंने देखा है तुझे, डिब्बे में कई नोट छिपाते हुए |
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सलाम इंडिया

हर अज़ान पे आता है लबों पर जो नाम इंडिया,
तेरे सदके मैं, है तुझको सलाम इंडिया |

वो ये कहते हैं के दो मुल्क बसते हैं यहाँ,
है मुकाबला सा, भारत बनाम इंडिया |

मैं कहता हूँ दो नहीं, अट्ठाईस भी नहीं,
हैं 121 करोड़ नाम, या है बेनाम इंडिया |

जो बदला जहाँ है, तो बदले हैं हम भी,
पहले था गाँधी, अब है कलाम इंडिया |

कुछ बात है मगर जो के बदली नहीं है,
के अब भी अमन का है पैग़ाम इंडिया |

एक पीढ़ी ने अपना सबकुछ लुटाकर,
दिया आज़ादी का हमें ईनाम इंडिया |

उठो अब, लो बागडोर हाथों में अपने,
आओ बनायें वतन-ए-इतमाम इंडिया |



इतमाम = perfection


- written on Aug 15, 2011

Kgp के प्रति...

5 साल में इंजिनियर बन निकलेंगे,
गए थे तेरे दर ये कयास लगाए |
मगर जो हुआ वो बयाँ क्या करें हम,
न इंजिनियर हैं, न बाहर ही आए |

- written on Aug 18, 2011 (Institute Foundation day)

हार नहीं मानूंगा...

कभी सियासती हमले से परेशान हूँ,
कभी बुद्धिजीवियों की बातों से हैरान हूँ |
गिर के उठा हूँ कई बार, फिर उठ जाऊंगा,
संभलना मुझे आता है, मैं हिंदुस्तान हूँ |


- Written on Aug 20, 2011

Sunday, April 10, 2011

गज़ल

सुना जो ग़ालिब को, फिर कुछ और सुनाई ना दिया,

जहाँ-ए-आलम में सिवा ग़ज़ल कुछ दिखाई ना दिया |


ज़माने ने दिया तालीम, कूबत-ए-सुख़न बेपनाह,

कर सके न फिर भी शायरी, के तनहाई ना दिया |


लोग कहते हैं तुझ को नेक-जिगर जाने क्यूँ कर,

इक नज़र में ही ले ली जान, औ सफाई ना दिया |


खुले थे कान मगर दिल पे था लगा ताला,

और कहते हो "मुझको कुछ भी सुनाई ना दिया" ?


जिये खुद-ही के लिए, तो गुमनाम ही मौत आएगी,

फिर न कहना किसी ने अश्क-ए-विदाई ना दिया |


यूँ तो अरसे से था जेहन में लिये बारूद "कर्मू",

पर कमबख्त किसी ने अब तलक सलाई ना दिया |




शब्दार्थ:

तालीम = शिक्षा

कूबत-ए-सुख़न = कविता करने की क्षमता

अश्क = आंसू

सलाई = माचिस

Saturday, January 29, 2011

जो खुबसूरत कहूँ, तो खूबसूरती को गुरूर हो

तेरा आना जहाँ में जैसे कोई दस्तूर हो,

ग़म से भरी दुनिया, इक "ख़ुशी" तो ज़रूर हो |


निगाहें तो औरों की भी होंगी मयकशी,

तेरी खुशबू बस छू जाए 'गर तो सुरूर हो |


लालची-दिल बिदक जाये तुझे जो कोई और देखे,

सिरफ मेरे दिल के घरौंदे में तू मशहूर हो |


ख़यालों से एक पल भी तू जुदा न हुई,

तो क्या हुआ के निगाहों से अभी दूर हो |


मिलन की आस में लिखे शेर तो आयत हो गए,

अर्जियाँ, दरबार में उसके, जाने कब मंज़ूर हो |


इंतज़ार में तेरे, हर रोज़ मेरा रोज़े सा हुआ,

हो दीदार मयस्सर, तो अपनी ईद हुज़ूर हो |


लब्ज़ कहाँ से लाए तेरे इस्तकबाल को "कर्मू",

जो खुबसूरत कहूँ, तो खूबसूरती को गुरूर हो |




सुरूर = नशा

इस्तकबाल = स्वागत/तारीफ

आयत = पवित्र कुरान की पंक्तियाँ

मयस्सर = नसीब


Friday, January 21, 2011

गज़ल

आलीम हैं, इससे ज़्यादा और क्या करेंगे?
शेर लिखेंगे, और वक्त ज़ाया करेंगे ।

कुछ करने की उम्मीद मत करना हमसे,
जहाँ-ए-बेदार सुनाएंगे, बातें बनाया करेंगे ।

हाकीमों के नगमें सुनाया किये हैं,
आवाम बेज़ुबाँ, फिर क्या गाया करेंगे?

हम-मज़हब हुआ तो फ़रिश्ता, वरना काफ़िर
इंसाँ को कब इंसाँ बुलाया करेंगे?

शुतुरमुर्ग-सा रेतों में दबाए रखा सर,
सोचा के सबकुछ खुदाया करेंगे!

नुक्स ढूंढा करते थे मुद्दों पे अकसर,
नुस्खे का हुनर अब दिखाया करेंगे ।

हुकूमत ने मोहरों-सा खेला है अबतक,
मोहरे अब सियासत में अदब लाया करेंगे ।




आलीम = बुद्धिजीवी, विद्वान
ज़ाया = बर्बाद
जहाँ-ए-बेदार = मुश्किलों भरी दुनिया
हाकीम = सत्ताधारी
हम-मज़हब = अपने धर्म का
नुक्स = खोट, गलतियाँ
नुस्खे = हल, समाधान
मोहरों-से = मोहरों की तरह
हुकूमत = सरकार
सियासत = राजनीति