Wednesday, December 14, 2011
दिल्ली
Monday, November 28, 2011
गज़ल
हाँ मुमकिन है बेशक, उसका ख़ुदा होना,
पढ़ रक्खा है सबने ही सबक नेकी का लेकिन,
कुफ्र को ही देखो ईमान बना लिया हमने,
के भड़कते नहीं शोले दिलों में शायरी से अब,
उठेंगी उँगलियाँ ही बस जो आवाज़ दोगे,
मर जाओगे तो कहेंगे लोग - भला था "कर्मू"
Thursday, September 22, 2011
Romance meets comedy!
नज़र के फिसलने को केले का छिलका नहीं लगता |
Remnants of thoughts, during Ramadan
रोज़ा होता है अवाम का, सियासी इफ्तार होता है |
वो करते हैं सिर्फ रोज़े पर, इसे रोज़ करते हैं |
दो टुकड़ा खज़ूर हो मयस्सर, तो इफ्तार भी हो जाए |
माँ ने कहा, हाथ में 5 का सिक्का बिठाते हुए
ईदी में तो "घोटाला" न कर अम्मी,
मैंने देखा है तुझे, डिब्बे में कई नोट छिपाते हुए |
सलाम इंडिया
वो ये कहते हैं के दो मुल्क बसते हैं यहाँ,
मैं कहता हूँ दो नहीं, अट्ठाईस भी नहीं,
जो बदला जहाँ है, तो बदले हैं हम भी,
कुछ बात है मगर जो के बदली नहीं है,
एक पीढ़ी ने अपना सबकुछ लुटाकर,
उठो अब, लो बागडोर हाथों में अपने,
इतमाम = perfection
- written on Aug 15, 2011
Kgp के प्रति...
- written on Aug 18, 2011 (Institute Foundation day)
हार नहीं मानूंगा...
Sunday, April 10, 2011
गज़ल
सुना जो ग़ालिब को, फिर कुछ और सुनाई ना दिया,
जहाँ-ए-आलम में सिवा ग़ज़ल कुछ दिखाई ना दिया |
ज़माने ने दिया तालीम, कूबत-ए-सुख़न बेपनाह,
कर सके न फिर भी शायरी, के तनहाई ना दिया |
लोग कहते हैं तुझ को नेक-जिगर जाने क्यूँ कर,
इक नज़र में ही ले ली जान, औ सफाई ना दिया |
खुले थे कान मगर दिल पे था लगा ताला,
और कहते हो "मुझको कुछ भी सुनाई ना दिया" ?
जिये खुद-ही के लिए, तो गुमनाम ही मौत आएगी,
फिर न कहना किसी ने अश्क-ए-विदाई ना दिया |
यूँ तो अरसे से था जेहन में लिये बारूद "कर्मू",
पर कमबख्त किसी ने अब तलक सलाई ना दिया |
शब्दार्थ:
तालीम = शिक्षा
कूबत-ए-सुख़न = कविता करने की क्षमता
अश्क = आंसू
सलाई = माचिस
Saturday, January 29, 2011
जो खुबसूरत कहूँ, तो खूबसूरती को गुरूर हो
तेरा आना जहाँ में जैसे कोई दस्तूर हो,
ग़म से भरी दुनिया, इक "ख़ुशी" तो ज़रूर हो |
निगाहें तो औरों की भी होंगी मयकशी,
तेरी खुशबू बस छू जाए 'गर तो सुरूर हो |
लालची-दिल बिदक जाये तुझे जो कोई और देखे,
सिरफ मेरे दिल के घरौंदे में तू मशहूर हो |
ख़यालों से एक पल भी तू जुदा न हुई,
तो क्या हुआ के निगाहों से अभी दूर हो |
मिलन की आस में लिखे शेर तो आयत हो गए,
अर्जियाँ, दरबार में उसके, जाने कब मंज़ूर हो |
इंतज़ार में तेरे, हर रोज़ मेरा रोज़े सा हुआ,
हो दीदार मयस्सर, तो अपनी ईद हुज़ूर हो |
लब्ज़ कहाँ से लाए तेरे इस्तकबाल को "कर्मू",
जो खुबसूरत कहूँ, तो खूबसूरती को गुरूर हो |
सुरूर = नशा
इस्तकबाल = स्वागत/तारीफ
आयत = पवित्र कुरान की पंक्तियाँ
मयस्सर = नसीब