Thursday, August 30, 2012

Untitled

रोज़ रात,
जब मैं ऑफिस से घर जाती,
चाँद मेरे साथ-साथ चलता
मुझे देखकर मुस्कुराता,
मैं उस से अपने किस्से सुनाती,

पर वो कुछ न कहता,
अजीब दोस्त था मेरा!

उस रात,
जब मैं हवस का शिकार हुई,
चाँद तब भी खामोश था
मैं चीखी, चिल्लाई,
लड़-हार कर मेरे अन्दर की लड़की अब मर गयी थी
पर उस दरिन्दे को इस से क्या मतलब,
उसे तो बस देह चाहिए था
और देह मेरा, अब भी जिंदा था
कुछ देर के बाद शायद तरस आ गया मेरी हालत पर,
या शायद "भूख" मिट गयी उसकी
मुझे, अपनी "मर्दानगी" के सबूत को,
सड़क पर छोड़ वो चला गया
मैं बेजान पड़ी सोचती रही,
संयम उसने खोया,
इंसानियत को बदनाम उसने किया,
फिर इज्ज़त मेरी क्यूँ लुटी?
जबकि मुझे पता था,
कल न्यूज़ चैनल पर चेहरा मेरा ही ब्लर्रड होगा,
मोहल्ले वाले मेरे ही आबरू के किस्से उछालेंगे
और वो,
छुट्टा घूम रहा होगा,
दोस्तों से अपनी "वीर-गाथा" सुनाता!

मैं आज भी वहीँ पड़ी हूँ,
बेजान
और चाँद,
आज भी बस देख ही रहा है!


Tried a different theme, sometimes back.

Monday, August 20, 2012

ईद का चाँद



जब तक चाँद न दिखे, ईद नहीं होती
और चाँद भी जब निकलता है, तभी दिखता है
बांकी हमसे जब चाहे जो दिखा लो...
हर साल 15 अगस्त को पाकिस्तान का झंडा
या आज़ादी की लड़ाई में गाँधी का हिडेन अजेंडा
हम अपनी सहूलियत से,
किसी आतंकवादी में भगवा या इस्लाम देख लेते हैं
और हर भ्रष्ट नेता में,
अल्पसंख्यक या दलित ही दिखता है
असामी या मणिपुरी भाई जब बंगलोर-चेन्नई छोड़ कर जाते हैं,
हम तुरंत पड़ोसी मुल्क का हाथ देख लेते हैं
हर दुसरे दिन, हम देख लेते हैं,
किसी मुसलमान को मूर्ति तोड़ते,
या किसी हिन्दू को उसका सर फोड़ते
घटनाओं के दिखने के लिए उनका होना ज़रूरी नहीं है !

हाँ, ईद इनसे अलग है
इसमें जो होता है वही दिखता है
चाँद होता है, तो दिखता है
दोस्त होते हैं, तो दिखते हैं
प्यार होता है, तो गले लगाते है
कल को शायद चीजें जैसी हैं वैसी दिखने लगे...
वैसे अभी तो सेवइयाँ दिख रही हैं,
फ़िलहाल इसी से काम चलाते हैं |

Saturday, August 18, 2012

Hijli Detention Camp!!!













लोग कहते हैं, जहाँ आज तू है,
पहले डिटेंशन कैंप हुआ करता था कोई!
बॉस! इस कंट्रास्ट पे,
ज्यादा इतराने की ज़रूरत नहीं है,
तेरे आने से भी,
सीन कुछ खास नहीं बदला है
देख ना,
कबका तो छोड़ आया हूँ तुझे
पर तू है के छोड़ता ही नहीं,
जैसे डिटेन कर रखा हो अब तक ! :)

Friday, July 27, 2012

जियो, उठो, बढ़ो, जीतो!

















अबकी जो गए हैं, तो खाली हाथ नहीं आएंगे!
खेल  नहीं रहेंगे खेल की बात,
होगा जोश, जूनून और जज़्बात
छोड़ेंगे नहीं रत्ती भर भी कसर,
Citius-Altius-Fortius को करेंगे आत्मसात

और मज़बूत, और तेज़, और ऊँचा जाएंगे
अबकी जो गए हैं, तो खाली हाथ नहीं आएंगे!

खून बस आँखों में हो, ऐसे लड़ना सिखाता है,
हार से नहीं, हार मानने से डरना सिखाता है
बस एक इंच, एक गोल, एक प्वाइंट और,
खेल, सतत लक्ष्य पे आगे बढ़ना सिखाता है

हर दिल में स्पीरिट स्पोर्ट्स का, चेहरे पे मुस्कान जगायेंगे,
अबकी जो गए हैं, तो खाली हाथ नहीं आएंगे!

अपना परचम लहराने को तैयार हम भी हैं,
पहले खेलते थे अकेले तुम, इस बार हम भी हैं,
ये देख चीयर करने को है पूरा देश उठ खड़ा,
सोने के, चांदी-कांसे के तयबदार हम भी हैं

बयासी की नहीं, सवा सौ करोड़ की टीम बनायेंगे,
अबकी जो गए हैं, तो खाली हाथ नहीं आएंगे!

Sunday, July 22, 2012

बुरा जो देखन मैं चला...

गाँधी टोपी पहने नेता, तुम दोषी हो
जागरूकता की शोबाजी करते अभिनेता, तुम दोषी हो
चपरासी, बाबु, या कलेक्टर,
फौज का सिपाही, वर्दीवाला अफसर
नोट छापने वाले इंडसट्रीयलिस्ट, तुम
NGO वालों, दिखावटी फिलैंथ्रोफिस्ट, तुम
मिडिया वालों - न्यूज़ चैनल हो या पत्रकार, तुम भी
जो जंतर-मंतर से कह रहे बंद करो भ्रष्टाचार, तुम भी
तुमारा दोष है बिहारी, मद्रासी या चिंकी होना
और तुम्हारा, दिवाली में हँसना या मुहर्रम में रोना

सब के सब गलत हैं, बस जो एक सही है
वो मैं हूँ, मुझमे कोई ऐब नहीं है
और हो भी कैसे,
मैं घर में आईना जो नहीं रखता!

Saturday, July 21, 2012

एक रोज़ा और भी

रोजा ना रखना तुम्हारी मर्ज़ी है,
और रोज़ाना रखना, हमारी मजबूरी
ये बात और है, के अक्सर सेहरी रह जाती है,
या इफ्तार नहीं होता |
जबरन की गयी इबादत में बरक्कत नहीं होती शायद,
तभी तो, महीने भर में तुम्हारी ईद हो जाती है,
मगर हमें चाँद नहीं दिखता
गलती उसकी भी नहीं है
दोस्त है न अपना, जानता है,
"दिख जाऊंगा तो कौन सा सेवैयाँ खा पायेगा"
इसलिए चिढ़ाने नहीं आता!



Thursday, July 12, 2012

दीवारें
















कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं
जो उनमे दरार डालता है
जो दस्यु वाल्मीकि से रामायण लिखवाकर,
उसे ब्रह्मण कर जाता है
जो चंड-अशोक को धम्म सिखाकर,
प्रियदर्शी बनाता है
जो जलालुद्दीन मोहम्मद को दीन-ए-इलाही बताकर,
शहंशाह अकबर कहलवाता है

कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं
वरना हम जो ज़मीन पर लकीरें खींच कर दीवार बनाते हैं,
क्यों ये बेवक़ूफ़ परिंदे हजारों मील का फासला तय कर,
फिर भी चले आते हैं?
ये बारिश की बूँदें भी तो यह नहीं पूछती,
कि, कहीं वो बाजु वाले घर के गीले कपड़ों से तो नहीं पनपी?
वो जो रजनीगंधा का पेड़ है कई दीवारों के पार,
क्यों उसकी खुशबू फिर भी नहीं रूकती?

कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं

वैसे देखा जाये तो दीवारें चाहिए भी क्यों?
ये तो कुछ छिपाकर, बांधकर रखने के लिए होती है ना
विचारों का प्रसार बंधनों में तो नहीं हो सकता
पर विडम्बना ये है कि, हर विचारधारा एक नयी दीवार खड़ी करती है
लेकिन बड़ी-बड़ी दीवारें हैं तो छोटी-छोटी खिड़कियाँ भी हैं,
उनकी भव्यता को धता बताने के लिए
अनंत दीवारों के बीच, बस एक खुला झरोखा,
काफी है यह एहसास कराने को, कि,
कुछ तो है, जिसे दीवारें पसंद नहीं!



(Theme, and specially the starting line, inspired by Robert Frost's "Mending Wall")

Monday, May 07, 2012

लुका-छिपी



बचपन के दिन अच्छे थे
अक्सर लुका-छिपी का खेल खेलते,
चाहे कहीं भी छुप जाओ,
दोस्त हमेशा ढूँढ निकालते थे,

आज छिपने के ठिकाने बदल गए हैं -
कभी किताबें, कभी फाइल,
फेसबुक, ट्विटर,
कुछ नहीं, तो खुद के ही मुखौटे के पीछे!
और कोई दोस्त ढूंढ नहीं पाता...
सब, खुद भी तो छुपे हुए हैं!

Friday, March 23, 2012

भगत सिंह

लो फिर उसका ख़याल एक बरस बाद आया है
फिर आया 23 मार्च, फिर भगत सिंह याद आया है ! 


उसकी शहादत के चर्चे हर महफ़िल, हर गलियारे में हैं
इन्किलाब की बातों पे फिर क्यों नहीं इरशाद आया है ?

Tuesday, February 14, 2012

Contrasting views on Valentine's day :)

मोहब्बत के नाम पर तुम करते हो नुमाइश,
जाहिर सी बात है ये, समझना मुश्किल नहीं है

मैं करता हूँ इश्क तो तुम "तहज़ीब" सिखाते हो
मेरे पास दिल नहीं मेरा, तुम्हारे पास दिल नहीं है |